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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्

 

नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शंखचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।। 

'श्रीपीठपर स्थित और देवताओंसे पूजित होनेवाली हे महामाये! आपको नमस्कार है। हाथमें शंख! चक्र और गदा धारण करनेवाली हे महालक्ष्मि। आपको प्रणाम है।'

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयंकरि।
सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

गरुड़पर आरूढ़ हो कोलासुरको भय देनेवाली और समस्त पापोंको हरनेवाली, हे भगवति महालक्ष्मि! आपको प्रणाम है।'

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरि।
सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

सब कुछ जाननेवाली, सब कुछ वर देनेवाली, समस्त दुष्टोंको भय देनेवाली और सब दुःखोंको दूर करनेवाली, हे देवि महालक्ष्मि! आपको नमस्कार है।'

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

'सिद्धि बुद्धि भोग और मोक्ष देनेवाली हे मन्त्रपूते भगवति महालक्ष्मि! आपको सदा प्रणाम है।'

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्ति महेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

हे देवि! हे आदि-अन्त-रहित आदिशक्ते, हे महेश्वरी, हे योगसे प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मि! आपको नमस्कार है।'

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे।
महापापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

'हे देवि! आप स्थूल, सूक्ष्म एवं महारौद्र रूप धारण करनेवाली हो। आप महाशक्ति हो, महोदरा हो और बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाली हो। हे देवि, महालक्ष्मि! आपको नमस्कार है।'

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि।
परमेश्वरि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

'हे कमलके आसनपर विराजमान परब्रह्मस्वरूपिणि देवि! हे परमेश्वरि, हे जगदम्बे, हे महालक्ष्मि! आपको मेरा प्रणाम है।'

श्रेताम्बरधरे देवि नानालंकारभूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।

'हे देवि महालक्ष्मि! आप श्वेत वस्त्र धारण करनेवाली और नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो। सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त एवं अखिल लोकको जन्म देनेवाली हो। हे महालक्ष्मि! आपको मेरा प्रणाम है।'

इन आठ श्लोकोंमें लक्ष्मीजीके स्वरूप, गुण और महाशक्तियोंका संकेत है। जो व्यक्ति भक्तियुक्त होकर इस महालक्ष्म्यष्टक स्तोत्रका सदा पाठ करता है, वह सारी सिद्धियों और राज-वैभवको प्राप्त कर सकता है। जो प्रतिदिन एक समय पाठ करता है, हिंदू-धर्मके अन्तर्गत उसके बड़े-बड़े पापोंका नाश हो जाता है। जो दो समय पाठ करता है, उसके बड़े-बड़े शत्रुओंका नाश हो जाता है और उसके ऊपर कल्याण करने और वर देनेवाली महालक्ष्मीजी सदा प्रसन्न होती हैं।

उपर्युक्त विवेचनसे प्रकट है कि लक्ष्मीजी (अर्थात् अर्थशक्ति) का हमारे जीवनमें बड़ा भारी महत्त्व है। हमें ध्यान रखना चाहिये कि माता लक्ष्मीका अपमान न हो। सदा स्वोपार्जित या उत्तराधिकारमें प्राप्त धनका सदुपयोग ही करना चाहिये। माता लक्ष्मी हमारे लिये सदा उत्तम-उत्तम वस्तुएँ देनेको प्रस्तुत रहती है, पर हमें उनसे न्यायोचित, सात्त्विक, मर्यादानुकूल ही वस्तुओंकी कामना करनी चाहिये। अनीति, पाप, झूठ, दगा या बेईमानीसे धन कमाना बुरा है। लक्ष्मीजी ऐसे व्यक्तिके पास सदा नहीं ठहरतीं। जो धन आपके पास है, उसे भगवान्की सेवाके भावसे यथार्थ, उन्नति, सात्त्विक दिशामें सर्वांगीण विकास, देशवासियों और संसारके गरीबोंकी सेवा तथा सहायतामें व्यय करना चाहिये। दान देना, सत्कर्मोंमे अपने धर्मकी कमाईको व्यय करना ही बुद्धिमानी है। दया, सेवा, उदारता, सदाचार, संयम, परोपकार, दान आदि व्यक्तित्वके सात्त्विक गुणोंके विकासमें लक्ष्मीजीकी सहायता लेनी चाहिये। कहा भी है-

वित्तशक्त्या तु कर्तव्या उचिताभावपूर्तयः।
न तु शक्त्या कदा कार्य दर्पौद्धत्यप्रदर्शनम्।।

'धनकी शक्तिद्वारा उचित अभावोंकी पूर्ति करनी चाहिये। अर्थ-शक्तिद्वारा घमंड और धृष्टताका प्रदर्शन नहीं करना चाहिये।'

माता लक्ष्मी यह नहीं चाहतीं कि आप रुपया-पैसा लेकर अनुचित कार्योंमें व्यय करें या अपनी अमीरीका थोथा बड़प्पन प्रदर्शित करें, विलासके गन्दे कीचड़में फँस जायँ, या अपनेसे कमजोरों, अभावपूर्ण व्यक्तियोंपर अन्याय और मनमानी करने लगें। कुकृत्यों, गन्दी वासनाओंकी पूर्तिके लिये लक्ष्मीजीको कष्ट देना पाप है।

आज प्रायः देखते है कि मूर्ख विवेकहीन व्यक्ति माता लक्ष्मीका अपमान करते हैं। सट्टा-फाटका, जुआ, रिश्वत, चोरी, ठगी, बेईमानी, छल, अनाचार, अन्याय और शोषण आदिसे रुपया कमाना लक्ष्मीका अपमान करना है। यदि इन अनुचित तरीकोंसे कमाये हुए धनसे कोई धनी बन भी जाय, तो भी लक्ष्मीजी स्वयं उसका कभी-न-कभी नाश कर देती हैं। धन उसके लिये परिणाममें अभिशाप बन जाता है। सजाके रूपमें वे उस अभागेको नाना प्रकारके शारीरिक रोग, द्वेष, शत्रुता, पारिवारिक वैमनस्य, व्यसन, व्यभिचार, दुर्गुण, बुरी आदतें, चिन्ताएँ उद्दण्डता, अहंकार, तृष्णा आदि अनेकों ऐसी बुराइयाँ अभिशापके रूपमें दे देती है, जिनसे ऐसे अमीर व्यक्तिका जीवन सदा दुखी और अशान्त बन जाता है। लक्ष्मीजी सदा यही देखती रहती है कि कब व्यक्ति अनीतिकी राहपर जाय और कब वे उस अभागेका परित्याग करें! बुरी आदतों, वासनाओं, फैशन, मिथ्या-प्रदर्शनकी ओछी आदतोंसे लक्ष्मीजीको घृणा है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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